सुरेंद्र: वो कलाकार जो अपने दोस्तों और जानकारों के कहने पर अचानक फिल्मों में काम करने मुंबई चले आए थे। एक ऐसे कलाकार जिसकी आवाज और अभिनय ने फ़िल्म जगत को उचाईयों पर पहुंचाया। फ़िल्म जगत का वो सितारा जिसकी पहली फ़िल्म ने ही दर्शकों के दिलों में अपनी जगह बना ली और फ़िल्म सुपरहिट हुई। लेकिन क्या आप सोच सकते हैं कि फिल्मों के दर्शक उन्हें अपनी बेजोड़ अभिनय क्षमता और सुरीली आवाज के दम पर उस दौर की माने हुए सिंगर के एल सहगल के बराबर मानने लगे थे।
और क्या आप जानते हैं कि उनके फिल्मों में काम करने के फैसले से उनके पिता बिल्कुल भी सहमत नहीं थे। वो चाहते थे कि उनका बेटा वकील या डॉक्टर बने। और क्या आप यकीन करेंगे कि फिल्मों में काम करने के लिए उनके पिता ने अनोखी शर्त रख दी थी जिसमें उन्होंने कहा था कि फिल्मों में वह अपना पूरा नाम और अपनी पढ़ाई की डिग्री भी लिखा करें।
आखिर कौन था ये फ़िल्म सितारा? क्या था इनका पूरा नाम? कहाँ हुआ था इनका जन्म? जानेंगे और भी बहुत कुछ बस बने रहिए इस ब्लॉग के अंत तक। महान फ़िल्म बैजू बावरा बैजू के जीवन पर आधारित थी, लेकिन बैजू बैजू बावरा ना बनता। अगर तानसेन ना होता और उस फ़िल्म में तानसेन की भूमिका निभाने वाले कलाकार ने बहुत प्रशंसा पाई थी क्योंकि उस्तादों के गाय गानों पर लिप्सिंग करना आसान नहीं होता था।
लेकिन सुरेन्द्र नाथ ने इस गाने को बहुत ही अच्छे ढंग से किया था, जो महान फ़िल्म मेकर के आसिफ ने जब अपनी ड्रीम और बड़ी फ़िल्म मुगल आजम बनाई, तब भी उन्होंने तानसेन का रोल सुरेन्द्रनाथ को ही दिया था। इनकी अभिनय क्षमता और सुरीली आवाज से के आसिफ बहुत प्रभावित थे। सुरेन्द्रनाथ को फ़िल्म इंडस्ट्री का दूसरा के एल सहगल कहा जाता था।
सुरेंद्र को उनके पिता ने एक शर्त पर फिल्मों में काम करने दिया:
सुरेंद्र नाथ बी ए एल एल बी वकालत की पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने फिल्मों में काम करने का मन बनाया था। इस फैसले से उनके पिता सहमत नहीं थे और उन्होंने सुरेंद्र नाथ के बहुत कहने पर एक शर्त रख दी थी। वो फिल्मों में अपने पूरे नाम के साथ अपनी डिग्री भी लिखेंगे।
मगर आज भी लोग उन्हें केवल सुरेंद्र नाम से ही जानते हैं। बाद के दौर में उन्होंने चरित्र भूमिका की जीस वजह से बहुत से दर्शक उनको मुख्य कलाकार ना समझा केवल सह कलाकार ही समझते थे मगर ऐसा नहीं था। वो 30 के दशक के माने हुए फिल्मों के नायक थे। उन्होंने मुख्य भूमिका में अपने दौरे की नामी अभिनेत्रियों के साथ अभिनय किया था।
सुरेंद्र की शुरुआती जिंदगी:
सुरेंद्र नाथ का जन्म 11 नवंबर 1910 को पंजाब प्रांत के बटाला शहर, गुरदासपुर जिला, ब्रिटिश भारत में हुआ था। इनके पिता का नाम रलिया राम शर्मा था। उन्होंने बटाला से अपनी प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त की और बाद में पिता के कहने पर अंबाला की पंजाब यूनिवर्सिटी से बी ए एल एल बी किया। वकालत की डिग्री लेने के बाद वो अब वकालत में अपना करियर शुरू करने का मन बना रहे थे। मगर तभी कहा जाता है की दिल्ली के फ़िल्म डिस्ट्रीब्यूटर लाला अलोपी प्रसाद की नजर उन पर पड़ी। उन्होंने सुरेंद्र नाथ को फिल्मों में काम करने की सलाह दी।
उस समय फिल्मों में काम करने के लिए दो बातें मुख्य हुआ करती थी एक खूबसूरत चेहरा और दूसरा सुरीली आवाज। यह दोनों ही गुण उनमें मौजूद थे। वह पढ़ाई के दौरान स्कूल व कॉलेज में होने वाले कार्यक्रम में गाया करते थे। सुरेंद्र इतना अच्छा गाते थे कि पूरे कॉलेज और दोस्तों के बीच वो सब के चहीते गायक बन गए थे। उन्हें इस तरह सभी दोस्तों का भी प्रोत्साहन मिल रहा था और सभी के जोड़ देकर कहने पर वो मुंबई फिल्मों में काम करने का सपना लिए चले आए। सुरेंद्र के माता पिता उनके फिल्मों में शामिल होने के बिल्कुल खिलाफ़ थे।
सुरेंद्र को सबसे पहले महबूब खान ने फिल्मों में मौका दिया:
मुंबई आकर उन्होंने जाने माने फ़िल्म मेकर महबूब खान से मुलाकात की, जो उस समय सागर मूवी टोन नाम की फ़िल्म कंपनी में काम कर रहे थे। महबूब खान ने उन्हें 1936 में बन रही फ़िल्म डेक्कन क्वीन में अभिनय करने का अवसर दिया। इस फ़िल्म में सुरेंद्र नाथ का गाया एक गाना बहुत मशहूर हुआ, जिसके बोल थे ‘रिहा की आग लगी मोरे मन में’ यह गाना के एल सहगल साहब की फ़िल्म देवदास के गाने ‘बालामए बसो मोरे मन में’ के धून पर ही बनाया। इस फ़िल्म का अन्य गीत सुरेंद्र द्वारा
गाया गया एक लोकप्रिय गज़ल थी ‘याद ना कर दिले हसीन भूली हुई कहानियों‘ दरअसल, देवदास फ़िल्म की कलकत्ता में धूम मची थी, उसी समय मुंबई फ़िल्म इंडस्ट्री में सुरेंद्र का आगमन हुआ था।
सुरेंद्र को गरीबों का देवदास कहां जाने लगा:
उनके की खूबसूरत चेहरे और सुरेली गायन क्षमता ने उन्हें के एल सहगल का विकल्प माना जाने लगा था। 30 के दशक में मुंबई फ़िल्म इंडस्ट्री और कलकत्ता फ़िल्म इंडस्ट्री एक दूसरे के कॉम्पिटिटर हुआ करते थे। मुंबई के फ़िल्म मेकर कलकत्ता के कलाकारों को लुभावने ऑफर दिया करते थे और बहुत से अदाकारा कलकत्ता छोड़कर मुंबई चले भी आए थे। जब फ़िल्म देवदास को अपार सफलता मिली तो महबूब खान को भी ऐसी ही फ़िल्म बनाने का ख्याल आया।
और अब अच्छी बात यह थी कि उनके पास एक अच्छी आवाज सुरेन्द्रनाथ जैसे कलाकार के रूप में थी, जो के एल सहगल साहब की आवाज को टक्कर दे सकती थी। साल 1936 में उन्होंने सुरेंद्र नाथ को लेकर फ़िल्म मनमोहन बनाई जीसको जिया सरहदी ने लिखा था और फ़िल्म में बिबो उनके साथ अभिनेत्री के तौर पर काम कर रही थी। यह फ़िल्म सुपर हिट रही। इसके बाद सुरेन्द्र को गरीबो का देवदास कहा जाने लगा।
सुरेंद्र ने कई हिट फिल्मों में काम किया:
इसी साल सागर मूवी टोन के बैनर तले एक और फ़िल्म आई ग्राम कन्या। ये फ़िल्म भी सफल रही। अब तक उनकी तीनो फिल्मों की सफलता ने उन्हें फ़िल्म इंडस्ट्री में पूरी तरह से बतौर सफल सिंगर ऐक्टर्स स्थापित कर दिया। इसके बाद साल 1937 की फ़िल्म जागीरदार भी हिट रही। मगर साल 1938 में रिलीज़ फ़िल्म ग्रामोफोन सिंगर बहुत ज्यादा सफल फ़िल्म बन गयी है। इस फ़िल्म में भी इनकी जोड़ी बिब्बों के साथ देखने को मिली। साल। 1938 में फ़िल्म ग्रामोफोन गायक के लिए काम करते समय सुरेंद्र की गायक दुर्घटना हो गयी और उन्हें अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। फ़िल्म की शूटिंग कुछ दिनों के लिए रुक गई थी।
फ़िल्म ग्रामोफोन सिंगर रामचंद्रन ठाकुर की पहली निर्देशित फ़िल्म थी, जिसमें सुरेंद्र ने बिब्बो और प्रभा के साथ अभिनय किया, जिन्होंने उनकी पत्नी की भूमिका निभाई। फ़िल्म की रिलीज़ के बाद सुरेन्द्र और बिब्बो एक लोकप्रिय जोड़ी बन गए। सुरेंद्र का गाना ‘एक छोटा सा मंदिर बना हुआ है’। लोकप्रिय हुआ यह जोड़ी दर्शकों को काफी पसंद आई और बाद में इस जोड़ी को कई फिल्मों में दोहराया भी गया। साल 1929 में इनकी तीन फिल्मों रिलीज़ हुई, जिनमें सर्वोत्तम बालामी की फ़िल्म लेडीज ओनली। नंदलाल, जसवंत लाल की फ़िल्म जीवन साथी और चमन लाल लुहार निर्देशित फ़िल्म सेवा समाज थी।
तीनों फिल्मों कुछ खास नहीं चल सकी, लेकिन सुरेन्द्रनाथ के अभिनय कौशल की तारीफ दर्शकों ने करी। सुरेंद्र ने अपनी काबिलियत से यह साबित किया कि वो के एल सहगल साहब की परछाई नहीं है। उनमें खुद भी अपनी अलग प्रतिभा है और आगे आने वाली फिल्मों में शीद्ध कर दिया। महबूब खान ने जब नेशनल स्टूडियो के लिए औरत फ़िल्म बनाई। तो सुरेंद्र ने बड़े बेटे की भूमिका निभाई। आपको जानकर हैरानी होगी की औरत वो फ़िल्म थी जीसको महबूब खान ने दोबारा बनाया साल 1957 में मदर इंडिया के नाम से और इसमें राजेंद्र कुमार का रोल ही उन्होंने फ़िल्म औरत में किया था।
जब सागर मूवी टोन और जनरल फिल्म्स आपस में मर्ज हुई और नेशनल स्टूडियो की नींव पर तो महबूब खान ने सुरेंद्र को लेकर साल 1940 में दो फिल्मों बनाई, जिनमें से एक थी फ़िल्म औरत और दूसरी अली बाबा। यह फ़िल्म दो भाषाओं में बनाई गई थी, जिसे हिन्दी और पंजाबी दोनों में बनाया गया था, जिसमें सुरेंद्र ने अली बाबा और उनके बेटे की दोहरी भूमिका निभाई थी। सुरेंद्र नाथ ने जब फिल्मों में काम करना शुरू किया था तब स्टूडियो सिस्टम होता था, लेकिन सुरेंद्र की फिल्मों पे नजर डाले तो 40 के दशक में उन्होंने अलग अलग स्टूडीओज़ और डाइरेक्टरों के साथ काम किया था। 1
943 के फ़िल्म पैगाम अमर पिक्चर्स के बैनर तले बनी फ़िल्म विश्वकन्या रंजीत स्टूडियो के फ़िल्म विश्वास वाडिया मूवी टोन की और लाल हवेली बॉम्बे सीनेट ओन की फ़िल्म थी। कहते हैं जब महबूब खान ने अपना प्रोडक्शन हॉउस बनाया था तो सुरेंद्र ने भी फ्रीलॅनसर की तरह काम करना शुरू कर दिया था। साल 1952 में उन्हें विजय भट्ट की फ़िल्म बैजू बावरा में तानसेन की भूमिका निभाने की पेशकश की गई। मीना कुमारी और भारत भूषण के मुख्य भूमिका वाले फ़िल्म व्यावसायिक रूप से एक बड़ी सफलता बन गई। नौशाद द्वारा रचित उसका संगीत लोकप्रिय हो गया।
दरबारी संगीतकार तानसेन और लोकप्रिय बैजू के बीच संगीत गायन प्रतियोगिता फ़िल्म का एक मुख्य आकर्षण था। हालांकि फ़िल्म में खुद के लिए गाने के बजाय सुरेंद्र को राग मलहार में ‘घनाना घनाना कर बरसोरे’ गाने के लिए उस्ताद आमिर खान के साथ लप सिंह करना पड़ा था।
सुरेंद्र ने फिल्मों से संन्यास ले लिया:
50 का दशक आते आते उन्होंने भी मेच्योर रोल करने शुरू कर दिए थे। साल 1952 की बैजू बावरा और साल 1954 की गवैया जैसी कुछ फिल्मों को छोड़ दे तो वो बहुत से फिल्मों में हीरो हीरोइन के पिता की भूमिका में नजर आने लगे थे। दिल देके देखो, हरियाली और रास्ता, गीत गाया पत्थरों ने, मिलन, सरस्वती चंद्र, दाग, 36 घंटे जैसी फिल्मों में वो चरित्र भूमिका में नजर आए। उनकी आखरी फ़िल्म 1977 में आई जिसका नाम था अभी तो जीले। इसके बाद उन्होंने फिल्मों से सन्यास ले लिया। फिल्मों छोड़ने के बाद सुरेंद्र ने अपनी ऐड एजेंसी शुरू की।
सुरेंद्र फ़िल्म प्रोडक्शन के नाम से बाद में उसका नाम दो बार बदला। पहले जे के एडवरटाइजमेंट, फिर हो गया एम ऐफ़ आई आर प्रोडक्शन जिसे बाद में उनके बेटों जितेंद्र और कैलाश ने चलाया। उनके बेटे जितेंद्र और बेटी रोहिनी पिंटो भारतीय विज्ञापन कंपनी ऐफ़ ए आर कमर्षियल का प्रबंधन करते हैं। उनके छोटे बेटे कैलाश के विज्ञापन फ़िल्म निर्माता और कैलाश पिक्चर कंपनी के संस्थापक हैं। उन्होंने अभिनेत्री आरती गुप्ता से शादी की।
सुरेंद्र की निजी जिंदगी:
अगर इनके विवाह की बात करे तो सुरेंद्र नाथ का विवाह 3 मार्च 1945 को लाहौर में सत्य ऋषि से हुआ था सत्य ऋषि लेखक तिलक ऋषि की बहन थी। सुरेंद्र और सत्य के चार बच्चे थे दो बेटियां और दो बेटे सुनीता, जितेंद्र नाथ, कैलाश और रोहिणी दूरदर्शन पर जो अलग अलग भाषाओं में मिले सुर मेरा तुम्हारा का जो फर्स्ट वर्शन आया था उनके बेटे कैलाश सुरेंद्र नाथ नहीं बनाया था। 11 सितंबर 1987 को सुरेंद्र 76 वर्ष की आयु में हमेशा के लिए दुनिया छोड़कर चले गए।
उन्होंने अपने फिल्मी जीवन लगभग पैसठ फिल्मों में काम किया और पांच फिल्मों में प्लेबैक सिंगिंग की थी। सुरेंद्र ने अपनी मृत्यु से कई साल पहले कोलगेट और लिरल जैसी बड़े ब्रांडों के लिए विज्ञापन, फिल्मों और टेलीविज़न विज्ञापन बनाना शुरू किया था। आज शायद उनके बारे में कोई ना जानता हो, लेकिन क्या उनके गाये वो गीत भुलाए जा सकते हैं जब तक वो गीत जिंदा रहेंगे तब तक लोगों के दिलों में सुरेंद्र याद आते रहेंगे। त
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