जयदेव: महान संगीतकार होने के बावजूद उनके पार्थिव शरीर को लावारिस समझकर अंतिम संस्कार कर दिया गया। Musician Jaidev Biography.

जयदेव: एक ऐसे संगीतकार जिन्होंने फ़िल्म संगीत को एक नया आयाम दिया। उन्होंने ऐसी धुनें बनाए जिनमें शास्त्रीयता और लोक परंपरा की मिठास मिलती है। वो ऐसे कलाकार थे जिन्होंने अपना पूरा जीवन माँ सरस्वती के कदमों में न्योछावर कर दिया। उन्होंने सिनेमा जगत को वो अनमोल नगीने दिए जिसके लिए संगीत प्रेमी हमेशा उनके ऋणी रहेंगे। लेकिन क्या आप जानते हैं की दुनिया को अपने संगीत पर थिरकाने वाले यह संगीतकार पहले खुद दूसरों के धुनों पर थिरकते थे।

क्या आप मानेंगे कि ये संगीतकार मायानगरी की चकाचौंध से कभी प्रभावित नहीं हुए और कई बार तो सब कुछ छोड़कर पहाड़ों और जंगलों में भटकते रहे।  और क्या आप यकीन करेंगे की दुनिया भर में विख्यात होने के बावजूद इस कलाकार को ऐसी गुमनामी की मौत मिली की उनकी लाश को प्रशासन ने लावारिस समझकर उनका अंतिम संस्कार कर दिया। कौन थे वो संगीत के साधक जिनका साथ दुर्भाग्य ने कभी नहीं छोड़ा फ़िल्म संगीत के इतिहास में अमर होने वाले संगीतकार को आखिरकार क्यों वह जगह नहीं मिल पाई जिनके वहाँ हकदार थे? आखिर क्या कारण है? जिसके चलते अंतिम समय में उन्हें कफन भी नसीब नहीं हुआ।

आखिर क्यों संगीत को अपना जीवन समर्पित करने वाले वो गुमनामी का अंधेरा मिला? जानेंगे और भी बहुत कुछ, बस बने रहिये आप हमारे साथ इस ब्लॉग के अंत तक। 

दोस्तों, नमस्कार, आज के इस ब्लॉग में हम बात करेंगे मेलोडी के साधक शास्त्रीय संगीत रचने वाले जयदेव की। वो एक ऐसे संगीतकार थे जिनके जिंदगी की शुरुआत भारत में ना हो कर सात समुन्दर पार देश में हुई थी।

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पूरा नामजयदेव वर्मा
प्रसिद्ध नामजयदेव
जन्म3 अगस्त, 1919
जन्म भूमिलुधियाना
मृत्यु6 जनवरी, 1987
मृत्यु स्थानमुम्बई
कर्म भूमिमुम्बई
कर्म-क्षेत्रसंगीतकार, अभिनेता
Jaidev

जयदेव की शुरुआती जिंदगी:

जयदेव
जयदेव

साल 1919 में 3 अगस्त की तारीख थी केन्या की नैरोबी शहर में रह रहे एक भारतीय ब्राह्मण परिवार के एक खूबसूरत बच्चे का जन्म हुआ। परिवार ने प्यार से नाम रखा था जयदेव। इनके पिता नैरोबी में व्यवसाय करते थे। पिता चाहते थे की बेटा ऊंची तालीम ले, लेकिन केन्या में उस समय एजुकेशन की फैसिलिटी थोड़ी कम थी, यही वजह थी की उनके पिता ने उन्हें अपने भाई बहनों के साथ भारत भेज दिया। यहाँ जयदेव लुधियाना में अपने फूफा के घर रहने लगे। यहाँ आर्य स्कूल में उनका दाखिला करा दिया गया।

जयदेव की माँ एक धार्मिक महिला थी वो उन्हें रामायण और भजन गाकर सुनाया करती थी। जयदेव को बचपन से ही संगीत में लगाव हो गया था। जब वो पांचवे ग्लास में थे तभी उन्हें संगीत की ट्रेनिंग के लिए लुधियाना के ही एक प्रोफेसर बरकत राय जी के पास भेजा गया।

जयदेव छोटी सी उम्र में भाग कर मुंबई चले गए:

जयदेव
Jaidev

साल 1932 में फ़िल्म आई अली बाबा 40 जून उस वक्त जयदेव महज 12 साल के थे। उन्होंने पहली बार ये फ़िल्म देखी या एक बोलती फ़िल्म थी। इसमें अभिनेत्री कंचन का गाया गाना ‘बिजली गिरती है सदा ऊंची मीनारों पर’ उन्हें बहुत पसंद आया। लिहाजा जयदेव पर फ़िल्म की दीवानगी इस कदर बढ़ी की वो बम्बई भाग गए। उन्हीं दिनों जयदेव के पिताजी भारत आए हुए थे। पता चला कि बेटा जयदेव घर से भागकर मुंबई गया है तो वो भी वहीं जा पहुंचे। मुंबई में बेटे को ढूंढना शुरू किया। एक रोज़ जयदेव किसी फ़िल्म थिएटर के सामने खड़े थे।

पिता की नजर पड़ी तो वे उन्हें अपने साथ पंजाब ले गए। एक स्कूल में जयदेव का दाखिला करा दिया। जयदेव के पिता को ज्योतिष विद्या का अच्छा ज्ञान था। उन्होंने जयदेव की कुंडली देखी। उसके बाद उन्होंने घर में सबसे कहा जयदेव जो कुछ भी कर रहा है उसे करने दिया जाए। उसके भाग्य में यही लिखा है। बस फिर क्या था, पिताजी का सिग्नल मिलते ही जयदेव साल 1933 में फिर से बम्बई आ गए। इस बार उनकी भाग्य रेखा उन्हें अक्टिंग की तरफ ले गई। उन्हें वाडिया मूवी टोन में आर्टिस्ट के तौर पर रख लिया गया।

यहाँ उन्होंने आठ फिल्मों में अक्टिंग की। साल 1934 में उनकी पहली फ़िल्म वामन अवतार आई, जिसमें उन्होंने नारद का रोल निभाया था। इसके। बाद हंटर वाली, वीरभद्र, काला गुलाब, फ्रंटियर मेल, जोशे वतन और मंतर वर्मा जैसी धार्मिक और सामाजिक फिल्माई जिसमे उन्होंने हर तरह का रोल किया लेकिन खुद की कोई पहचान ना बन सकी।

जयदेव के पिता की मृत्यु के बाद जिम्मेदारी उनके ऊपर आ गई:

जयदेव
Jaidev

मुंबई में कुछ दिन रहने के बाद वह फिर पंजाब वापस लौट आए। साल 1940 में उनके पिता नैरोबी से लौट आए। पिता बीमार थे, उनकी आँखें खराब हो गई थी। उनका देखरेख करने जयदेव लुधियाना लौटे। कुछ समय बाद पिता की मृत्यु हो गई। पिता की मौत के बाद परिवार की जिम्मेदारी Jaidev के कंधे पर आ गई थी। संगीत में शिक्षित होने के चलते वह स्कूल में म्यूसिक टीचर की नौकरी करने लगे। लेकिन उनका मन वहाँ नहीं माना और उन्होंने वह नौकरी छोड़ दी। इसके बाद वह अल्मोड़ा गए जहाँ उस्ताद गुलामूद्दीन साहब, अली अकबर और रविशंकर साहब का संगीत का सेंटर था।

एक महीना यहाँ रुकने के बाद वे लखनऊ गए यहाँ उन्होंने अली अकबर खान साहब से संगीत की तालीम ली।  Jaidev ऐसे यात्री थे जिन्हें अपनी मंजिल का पता नहीं था। उनका मन बेचैन था। वो ऋषिकेश में स्वामी शिवानंद के आश्रम में रहने लगे। कुछ दिन वहाँ रहने के बाद वो उज्जैन चले गए, आर्थिक मजबूरियों ने दबाव  बनाया की वो दिल्ली पहुँच कर एक बैंक में नौकरी करने लगे। कुछ दिन काम करने के बाद उन्होंने रेडियो जॉइन किया, जिसके लिए उन्हें महीने के ₹200 मिलते थे। उसी दौरान उनकी मुलाकात संगीतकार रोशन से हुई। उन्होंने जयदेव को मुंबई आने को कहा।

1940 में किदार शर्मा एक फ़िल्म नेकी और बदी बना रहे थे। रोशन साहब के कहने पर केदार शर्मा ने उस फ़िल्म में एक गीत गाने का ऑफर दिया, लेकिन अस्थमा के अटैक की वजह से वे नहीं पहुँच पाए। इस घटना ने उन्हें तोड़ कर रख दिया। लिहाजा गायकी की दुनिया में वह अपना नाम कर पाएंगे या नहीं, यह एक सवाल बन गया।  साल 1947 में संगीताज्ञ व जोधपुर रियासत के दरबारी गायक उस्ताद अली अकबर खा दिल्ली में एक प्रोग्राम करने गए थे। उस समय ज्यादे रेडियो स्टेशन में ही काम कर रहे थे अली। एक बार साहब ने जयदेव से मुलाकात की फिर उन्हें अपने साथ काम करने का ऑफर दिया।

बस फिर क्या था जयदेव अली अकबर साहब के साथ जोधपुर चले गए थे। 2 साल जोधपुर रियासत में उस्ताद  के साथ गायन में सहयोग करते रहे।

जयदेव की तंगहाली हालत हुई मुंबई में:

जयदेव
Jaidev

साल 1951 में Jaidev ने एक बार फिर से मुंबई की तरफ रुख किया। यहाँ उस्ताद अली अकबर खान की मुलाकात केतन आनंद से नव केतन की फ़िल्म टैक्सी ड्राइवर में जयदेव साहब ने बतौर असिस्टेंट म्यूसिक डाइरेक्टर सचिन देव बर्मन के साथ काम किया। सचिन देव बर्मन जयदेव के संगीत के प्रति लगन और समर्पण देख बहुत प्रभावित रहते थे। वो कहते थे, मेरे दो बेटे हैं बड़ा Jaidev और छोटा पंचम। साल 1955 में आई फ़िल्म जोरू का भाई जिसमें बतौर संगीतकार जयदेव साहब को एक मौका मिला।

दुर्भाग्यवश फ़िल्म नहीं चली, जिसके बाद केतन आनंद ने जयदेव को बतौर संगीतकार साल 1956 में आई फ़िल्म समुद्री डाकू और साल 1957 में आई फ़िल्म अंजलि में एक बार फिर मौका दिया। संगीत बेहतर होने के बावजूद फिल्मों नहीं चली। इसके बाद 4 साल तक उन्हें एक भी फ़िल्म को ऑफर नहीं मिला। वो मुंबई में एस्टाब्लिश नहीं हो पा रहे थे। उनके पास जो भी पैसे थे वह सब खत्म हो गए थे। वह एक जानने वाले के हाँ पेइंग गेस्ट बनकर रहते थे। उनकी शादी की उम्र भी निकली जा रही थी। उन्होंने फैसला किया कि जब वह सफल नहीं होते तो वह किसी लड़की की जिंदगी खराब नहीं करेंगे।

जयदेव की किस्मत बदली काफी संघर्ष करने के बाद:

जयदेव
Jaidev

वक्त में करवट ली 1961 में नव केतन ने एक बार फिर फ़िल्म हम दोनों के लिए Jaidev को मौका दिया। फ़िल्म और उसके सभी गीत सुपर डुपर हिट रहे। Jaidev को सही मायनों में 10 साल बाद इस फ़िल्म से पहचान मिली। इस फ़िल्म का एक गाना अभी ना जाओ छोड़ कर यह खूब लोकप्रिय हुआ। इसके बाद उन्होंने कभी पलट कर नहीं देखा। जिंदगी में नाकामियों का स्वाद चखते चखते। पहली बार उनकी झोली में सफलता का फल गिरा था। वह इस फ़िल्म का गाना मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया, यह गाना इतना पसंद किया गया कि आज के युवा भी इससे अछूत नहीं हैं।

साल 1962 में सुनील दत्त साहब फ़िल्म मुझे जीने दो फ़िल्म बना रहे थे। उन्होंने Jaidev को अपनी फ़िल्म के संगीत की जिम्मेदारी दी। फ़िल्म हिट रही। इस फ़िल्म ने उन्हें अलग पहचान दी। एक लंबे अंतराल के बाद 1977 में उन्होंने दो फिल्मों में संगीत दिया। पहली अलाप और दूसरी फ़िल्म थी घरौंदा। Jaidev साहब की जिंदगी उतार चढ़ाव से भरी रही। कई शहर बदले, अलग अलग दोस्त बने, कई गुरु का संरक्षण भी मिला।

बतौर अभिनेता और म्यूसिक डाइरेक्टर भी काम करना शुरू किया लेकिन बीच बीच में गुमनामी अंधेरा भी इनके ज़िन्दगी में छाता रहा। लोगों के जीवन  में अपने गीतों से रस भरने वाले जयदेव ने कभी शादी नहीं की। उनका निजी जीवन तन्हाई और सन्नाटा में बिता।

जयदेव के जीवन का एक किस्सा:

इनके जीवन का एक किस्सा यह भी है कि एक बार मध्य प्रदेश सरकार ने Jaidev को लता मंगेशकर अवार्ड के लिए नॉमिनेट किया, जिसमें ₹1,00,000 की राशि दी जानी थी। जयदेव इनाम लेने मध्य प्रदेश पहुंचे। उसी दौरान एक शख्स ने उनसे कहा, जब आपके गुरु को यहाँ अवार्ड नहीं दिया गया है तो आपका धन के लालच में यहाँ आए तो जयदेव साहब ने बहुत ही शांति से जवाब दिया कि भाई यह बात सही है कि मैं ₹1,00,000 के लिए ही यहाँ आया हूँ। सच बात तो यह है कि मैंने अपने पूरे जीवन में कभी इतने रुपए एक साथ नहीं देखे।

जयदेव के शरीर को लावारिस समझकर अंतिम संस्कार कर दिया गया:

Jaidev

30 साल तक फ़िल्म इंडस्ट्री के म्यूसिक फटरनिटी का हिस्सा बन कर उन्होंने 41 फिल्मों के 250 से भी ज्यादा गीतों को संगीत से संवारा, लेकिन दुर्भाग्य ने उनका साथ कभी नहीं छोड़ा। जयदेव 6 फरवरी 1987 को अचानक बीमार हो गए। किसी अजनबी ने उन्हें अस्पताल पहुंचाया। जयदेव ने अपनी आखिरी सांस से अस्पताल में ली। उनके पार्थिव शरीर को किसी ने क्लीन नहीं किया, तो अस्पताल अथॉरिटी ने उन्हें लावारिस जानकर अंतिम संस्कार करवा दिया। इनके कमरे से पुराने एखबार मैगज़ीन, एक छोटा सा फ्रिज और धूल से सना हुआ सरोद मिला। ग

गौर करने वाली बात क्या है कि भले ही इन्होंने कम फिल्मों के लिए संगीत दिया हो लेकिन जो भी संगीत इन्होंने दिया वह संगीत की दुनिया की इतिहास में हमेशा याद किया जाएगा। जब भी कभी महानतम संगीतकारों का नाम आएगा, उसमें जयदेव साहब का नाम भी शामिल होगा।

तो दोस्तों आपको ये ब्लॉग कैसा लगा? हमें कमेंट करके अवश्य बताएं। अगर आपके पास जयदेव के बारे में और भी कोई जानकारी हो तो हमें कमेंट करके अवश्य बताएं तो दीजिए हमें इजाजत, नमस्कार।

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