गुलशन नंदा: एक ऐसा कहानीकार जिनके उपन्यास को बॉलीवुड ही नहीं, कई भाषाओं के फ़िल्म उद्योग को सुपरहिट फिल्मों का प्लॉट दिया। उनके लिखे उपन्यासों और उनके लिखी पटकथा का कोई जोड़ ना था जिन पर उनकी मौत के बरसों बाद भी फिल्मे बनती रही। एक ऐसे बेस्ट सेलर उपन्यास का जिनके दर पर प्रकाशको की कतारें लगती रहती थी और जिनके आगे फ़िल्म इंडस्ट्री के दिग्गज हाथ जोड़े खड़े रहते थे।
लेकिन क्या आप जानते हैं कि अपने दौर में मूंह मांगी कीमत पाने वाले यह लेखक बचपन में बेहद गरीबी के दौर से गुजरे थे? क्या यकीन करेंगे कि लोकप्रियता के आसमान पर होने के बावजूद इस कहानीकार को फ़िल्म जगत ने कभी कोई अवार्ड नहीं दिया और साहित्य जगत ने तो उन्हें साहित्यकार मानने से भी इनकार कर दिया था। आप क्या सोच सकते हैं कि हिंदी के इस महान पटकथा लेखक वो उपन्यासकार को हिंदी लिखनी वह पढ़ने भी नहीं आती थी।
कौन थे वो लेखक और क्यों उनके लिखे उपन्यास उन पर बनी फिल्मों के बाद छपते थे? क्यों फ़िल्म इंडस्ट्री ने उनका पूरा भरपूर फायदा उठाने के बावजूद उन्हें भूला दिया था और क्या था उनका फ़िल्म इंडस्ट्री के सबसे बड़े कहे जाने वाले कपूर परिवार से रिश्ता जानेंगे और भी बहुत कुछ बस बने रहे इस ब्लॉग के अंत तक।
तो दोस्तों नमस्कार, आज के ब्लॉग में हम चर्चा करेंगे 1960 और 1970 के दशक में हिंदी फ़िल्म के सबसे पॉपुलर और व्यस्त कहानीकार, उपन्यासकार, और पटकथा लेखक गुलशन नंदा की। वो एक ऐसे कथाकार थे, जिनके नाम कई सुपरहिट फिल्मों थी और जिनके दरवाजे पर फ़िल्म निर्माताओं के साथ साथ प्रकाशकों की भी लाइन लगी रहती थी। लेकिन इस महान लेखक की ज़िन्दगी शुरुआत से ऐसी रही थी। उनका बचपन बेहद गरीबी में बीता था।
गुलशन नंदा की शुरुआती जिंदगी:
गुलशन नंदा का जन्म 28 जनवरी 1929 को क्वेटा में हुआ था जो अब पाकिस्तान में है। आजादी के कई साल पहले उनका परिवार दिल्ली आ गया था। किशोरावस्था में ही वो दिल्ली के बल्लिमराण में एक चश्मे की दुकान पर काम करने लगे। उनकी कहानियों सुनाने की क्षमता और कल्पनाशीलता को देखते हुए किसी ने उन्हें सलाह दी की वो लेखन की तरफ मुड़े। एन डी सहगल नामक प्रकाशक ने पहली बार उनको छपने का मौका दिया।
उनके उपन्यास सहगल साहब के अशोक पॉकेट बुक्स के बैनर तले छप रहे थे। कहते हैं उस समय उन्हें किताब के ₹100 या ₹200 मिला करते थे, फिर रफ्ता रफ्ता उनकी कामयाबी बोलने लगी और रकम बढ़ने लगी। एक वक्त ऐसा आया की वो जो भी रकम मांगते उन्हें मिल जाती। प्रकाशक हाथ जोड़े खड़े रहते। उनके दरवाजे पर उन्हें साइन करने के लिए होड़ मची रहती थी। हालांकि गुलशन नंदा के लेखन का जादू दर्शकों और पाठकों दोनों ही के सिर चढ़ कर बोल रहा था। लेकिन साहित्य के क्षेत्र में इस लोकप्रियता को सम्मान नहीं मिल रहा था।
गुलशन नंदा की लोकप्रियता तेजी से बढ़ रही थी:
स्वनाम धन्य व मूर् धन्य साहित्यकारों ने गुलशन नंदा व ऐसे दूसरे लोकप्रिय उपन्यासकारों की रचनाओं को लुब्दी साहित्य का नाम दे दिया। हालांकि वह दौर कुछ ऐसा था कि इस लुब्दी साहित्य को पढ़ने वालों की संख्या तेजी से बढ़ती जा रही थी। लोग जितना इन साहित्यकारों को पसंद करते थे, उससे कई गुना ज्यादा लोकप्रिय गुलशन नंदा, सुरेंद्र मोहन, वेद प्रकाश, रानू जैसे लेखक थे।
घर घर में ऐसे उपन्यास देखने को मिल जाते थे। विशेष पढ़ी लिखी महिलाएं तो रानू और गुलशन नंदा के उपन्यासों की जबरदस्त फैन थी। फ़िल्म इंडस्ट्री ने भी उनकी इस लोकप्रियता का जमकर फायदा उठाए। गुलशन नंदा के उपन्यासों पर फिल्में बन जाती थी। उनके उपन्यासों में नीलकंठ, लरजते आंसू, कलंकनी, जलती चट्टान, घाट का पत्थर, ये लॉर्ड आदि प्रमुख कृतियां है।
गुलशन नंदा की कलम ने धमाल मचाया:
फिल्मों में उनकी कलम ने और धमाल मचाया। इतनी ही हिट फिल्मों के क्रेडिट में बतौर कहानीकार उनका नाम दर्ज है। जीस नाम और क्रेडिट के लिए 70 के दशक में सलीम जावेद जैसे लेखेकों को भारी मशक्कत करनी पड़ी। वो क्रेडिट गुलशन नंदा को बिना मांगे मिल रहा था। तो हम लोगों को पता है कि फिल्मों में गुलशन नंदा का नाता जुड़ा था एक दक्षिण भारतीय फ़िल्म के जरिए, जिसका नाम था पुनर्जन्म।
साल 1963 में रिलीज़ हुई तेलुगु भाषा की यह फ़िल्म ए वि सुब्बाराव ने बनाई थी और यह गुलशन नंदा की उपन्यास पत्थर के होंठ पर आधारित थी और इसने दक्षिण भारत में खासी लोकप्रियता बटोरी। बाद में इसकी हिंदी रीमेक भी हुई जिसकी चर्चा हम आगे करेंगे।
गुलशन नंदा की बॉलीवुड में शुरुआत:
बॉलीवुड यानी हिन्दी से जगत में गुलशन नंदा की शुरुआत हुई 1964 में रिलीज़ फ़िल्म फूलों की सेज से। जिसे तबके जाने माने निर्देशक इंद्रराज आनंद ने निर्देशित किया था। फ़िल्म में अशोक कुमार, मनोज कुमार और वेजन्ती माला मुख्य भूमिकाओ में थे। यह फ़िल्म गुलशन साहब के उपन्यास अंधेरे चिराग पर आधारित थी और दर्शकों के बीच खासी लोकप्रिय रही। अगले साल यानी 1965 में उनकी एक और किताब माधवी पर आधारित फ़िल्म आई, जिसका नाम था काजल।
इस फ़िल्म को फ़िल्म फेयर में बेस्ट स्टोरी का नॉमिनेशन भी मिला था। फ़िल्म इंडस्ट्री के एक नए लेखक के लिए यह बेहद सम्मानजनक बात थी। सन 1966 में आई फ़िल्म सावन की घटक जिसके निर्माता निर्देशक थे शक्ति सामान्ता। इस फ़िल्म में मनोज कुमार, शर्मीला टैगोर, मुमताज़, प्राण और जीवन जैसी चोटी के कलाकारों ने आदि जैसे चोटी के कलाकारों ने अदाकारी की थी।
गुलशन नंदा की साल में सिर्फ एक ही किताब आतीं थी:
गुलशनंदा साहब की संभवतः प्रकाशक के साथ सहमति से साल भर में अमूमत एक ही किताब आती थी। उपन्यासकारों का मानना है की ऐसा वो जानबूझकर एक स्ट्रेटेजी के तहत करते थे ताकि पाठकों को उनकी अगली किताब का इंतजार रहे और उनकी पिछली किताब स्टॉलो से पूरी तरह बिक जाए। 1967 में आई फ़िल्म पत्थर के सनम। गुलशनंदा साहब की उपन्यास सावली रात पर आधारित थी।
ए ए नाडियाड वाला की इस फ़िल्म में मनोज कुमार, वहीदा रहमान, मुमताज़ और प्राण थे। फ़िल्म का निर्देशन राजा नवाथे ने किया था। 1968 में राजकुमार, वहीदा रहमान और मनोज कुमार अभिनीत फ़िल्म नील कमल ने तो मानो तहलका मचा दिया। इस फ़िल्म में पुनर्जन्म और उसके आत्मा से मिलने की कहानी को बेहद रोचक अंदाज़ में दिखाया गया था। जीस उपन्यास पर फ़िल्म आधारित थी। उसका नाम भी नील कमल ही था जो पाठको के बीच बेहद लोकप्रिय रहा।
गुलशन नंदा की फिल्म और किताब साथ-साथ ही आती थी:
गुलशन नंदा साहब की फिल्मों और किताबे लगभग साथ साथ ही बाज़ार में उतरती थी लेकिन दोनों ही हिट रहती थी। दरसल उनकी किताबों में दृश्यों का एहसास सजीव चितरण होता था की पाठको को लगता था, जैसे वो फ़िल्म ही देख रहे हो। इसके बाद 1970 में आई संजीव कुमार, मुमताज़, शत्रुघ्न सिन्हा और जितेंद्र अभिनीत फ़िल्म खिलौना। यह फ़िल्म 1964 में आई तेलुगु फ़िल्म पुनर्जनन की रीमेक थी।
जैसा कि पहले भी बताया जा चुका है कि अब फ़िल्में गुलशन नंदा साहब के उपन्यास पत्थर के होंठ पर आधारित थी। खिलौना ने भारी लोकप्रियता बटोरी और उस साल इसे फ़िल्म फेयर के सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म के पुरस्कार से भी सम्मानित होने का मौका मिला। फ़िल्म की हीरोइन मुमताज़ को भी सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार मिला। हालांकि इस अवार्ड समारोह में भी सर्वश्रेष्ठ कहानी की कैटेगरी में गुलशन नंदा साहब का नाम सिर्फ नॉमिनेशन तक ही सिमट कर रह गया।
वर्ष 1970 में ही इस फ़िल्म की तमिल रीमेक भी रिलीज़ हुई, जिसका नाम था एग्युरंधो बंगाल। बाद में सन 1976 में अमृत वाहिनी के नाम से इसके मलयालम रीमेक भी आई। 1971 में गुलशन नंदा के उपन्यास कटी पतंग पर आधारित इसी नाम की फ़िल्म आई, जिसमें मुख्य भूमिका में आशा पारेख थी। शक्ति सामंता कि इस फ़िल्म के नायक थे राजेश खन्ना जब की अन्य कलाकार प्रेम चोपड़ा, बिंदु व नासिर हुसैन आदि थे।
यह फ़िल्म भी खासी हिट रही और इसके लिए आशा पारेख को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फ़िल्म फेयर अवार्ड अवार्ड मिला। बाद के वर्षों में इस फ़िल्म की तमिल और तेलुगु रीमिक्स भी बनी। इसी साल गुलशन नंदा के उपन्यास पर एक और फ़िल्म आई, जिसका नाम था शर्मिली और जिसमें शशि कपूर व राखी की मुख्य भूमिका थी। यह फ़िल्म जुड़वा बहनों के एक ही नायक से हुए प्रेम की अनोखी कहानी पर बनी थी, जिसे राखी ने डबल रोल के जरिए बड़ी ही खूबसूरती से निभाया था।
इस फ़िल्म से ही विलन रंजीत ने अपना डेब्यू किया था। फ़िल्म खासी लोकप्रिय रही और समीक्षकों ने सेमी हिट करार दिया। इस फ़िल्म को शशीधर मुखर्जी के भाई सुबोध मुखर्जी ने बनाया था और इसका निर्देशन समीर गांगुली ने किया था। 1971 में ही गुलशन नंदा की रचना पर आधारित तीसरी फ़िल्म भी आई, जिसका नाम था नया ज़माना और जिसमें धर्मेंद्र व हेमा मालिनी लीड रोल में थे। अन्य कलाकारों में अशोक कुमार, प्राण, महमूद और अरुणा इरानी प्रमुख थे।
हालांकि कहा यह भी गया है कि यह फ़िल्म 1940 के दशक में आई बंगला फ़िल्म उदय पाथे पर आधारित है, लेकिन दर्शकों और पाठकों के बीच उनका नॉवेल खासा लोकप्रिय हुआ फ़िल्म के निर्माता निर्देशक थे प्रमोद चक्रवर्ती। सन 1973 में आई फ़िल्म दाग ए पोएम ऑफ़ लव ने फ़िल्म जगत में तहलका मचा दिया। राजेश खन्ना और शर्मिला टैगोर व राखी के अभिनय से सजी या फ़िल्म यशराज फिल्म्स के संस्थापक यशराज चोपड़ा की पहली फ़िल्म थी। उससे पहले वो अपने बड़े भाई बी आर चोपड़ा की कई फिल्मों में सहायक निर्देशक रह चूके थे। इस फ़िल्म के लिए यश चोपड़ा को सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का फ़िल्मफेयर अवार्ड भी मिला। फ़िल्म सुपरहिट रही।
गुलशन नंदा का बायकाट हुआ फिर भी उनका सिक्का चला:
हिंदी साहित्य जगत में शेषतावाद का बोलबाला हमेशा से रहा है, जिसका शिकार गुलशन नंदा को होना पड़ा। लंबे समय तक साहित्यिक भाषा से हटकर लिखी किताब या पुस्तक को लुब्दी साहित्य का नाम दे दिया जाता था। इसी वजह से हमारा हिंदी साहित्य गुलश नन्दा की घोर उपेक्षा करता रहा। इस बात का उन्हें हमेशा मलाल रहा। इस बारे में वो कहा भी करते थे। इसका एक रोचक किस्सा भी है। हिंदी की अग्रणी प्रकाशन संस्था हिंद पॉकेट बुक्स में एक तरह से गुलशन नंदा का बॉयकॉट कर रखा था।
उनकी किताबें छापने को लेकर अघोषित इन्कार साधा, लेकिन चढ़ते सूरज की रौशनी से कब तक मूछ ही पाया जा सकता है? 1970 के दशक में जब गुलशन नंदा फ़िल्म और उपन्यास जगत में अपना खासा नाम कर चूके थे, तब जाकर हिंदुस्तान के प्रकाशकों को अपनी गलती का एहसास हुआ। उन्होंने गुलशन नंदा के लिखे उपन्यास को छापने का इरादा किया। लेकिन इस बार सिक्का गुलशन नंदा का चल रहा था। उन्होंने मुँह मांगी रकम लेकर किताब दी।
1973 में आए इस किताब का नाम था झील के उस पार हिंदी प्रकाशन के इतिहास में झील के उस पार अद्भुत घटना थी। इस किताब का नभू तो न भविष्य प्रचार हुआ। भारत भर के अखबारों, पत्रिकाओं के साथ साथ रेडियो बिल बोर्ड्स का इस्तेमाल हुआ। इसके प्रमोशन में चौक चौराहों पर बस रेलवे स्टैंड पर बड़े बड़े पोस्टर चिपकाए गए। इस बात पर खास ज़ोर दिया गया। पहली बार किसी हिंदी किताब का पहला अडिशन ही 5,00,000 प्रतियों का है।
किताब छपी भी और बब्बर बिकी भी। ऐसे धुआं धार की जिसकी मिसाल मिलना नामुमकिन है। लाखों प्रतियां बिकी। हिंदी उपन्यासों में लाखों का ऐसा आंकड़ा सिर्फ इक्का दुक्का किताबे ही छुपाई। इस उपन्यास का इंग्लिश ट्रांसलेशन भी आया था, जिसका नाम था ऑन दी ऑदर साइड ऑफ़ लेक। किताब के साथ ही इसी नाम से एक फ़िल्म भी आई जिसे भप्पी सोनी ने निर्देशित किया था। इस फ़िल्म में धर्मेन्द्र और मुमताज़ हीरो हिरोइन थे। किताब और फ़िल्म दोनों ही सोन 1973 में लगभग एक ही समय में आई।
तो दोस्तों आपको हमारी स्टोरी कैसी लगी? हमें कमेंट में अवश्य बताएं। अगर आपके पास गुलशन अंदा साहब से जुड़ी कोई और जानकारी हो तो वह भी कमेंट बॉक्स में शेयर करें। अब दीजिए इजाजत, नमस्कार।